Dr Shyama Prasad Mukherjee: एक महान शिक्षाविद्, राजनेता और राष्ट्रभक्त की जीवन गाथा!
Dr Shyama Prasad Mukherjee का जीवन परिचय – कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति, भारतीय जनसंघ के संस्थापक और कश्मीर के पूर्ण विलय के लिए संघर्ष करने वाले महान नेता की प्रेरणादायक कहानी।

Dr Shyama Prasad Mukherjee
कोलकाता, 23 जून – भारतीय राजनीति और शिक्षा जगत में Dr Shyama Prasad Mukherjee का नाम एक ऐसे योद्धा के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश की एकता और शिक्षा के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। आज उनकी पुण्यतिथि पर हम उनके जीवन के महत्वपूर्ण पड़ावों को याद कर रहे हैं।
Dr Shyama Prasad Mukherjee :प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
1906 में, महज पाँच वर्ष की आयु में, श्यामाप्रसाद ने कोलकाता के प्रतिष्ठित मित्र इंस्टीट्यूशन, भवानीपुर शाखा में कक्षा II में प्रवेश लिया। यह संस्थान उस समय बंगाल के प्रमुख शिक्षण केंद्रों में से एक था, जहाँ शिक्षा के साथ-साथ छात्रों के चरित्र निर्माण पर भी विशेष ध्यान दिया जाता था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा ने ही उनमें अनुशासन, जिज्ञासा और अध्ययन के प्रति गहरा लगाव पैदा किया।
मैट्रिक परीक्षा में उत्कृष्टता और छात्रवृत्ति (1917)
1917 में, मात्र 16 वर्ष की आयु में, श्यामाप्रसाद ने मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और मेरिट छात्रवृत्ति प्राप्त की, जिसमें उन्हें 10 रुपये मासिक की सहायता मिलती थी। यह उस समय की एक बड़ी उपलब्धि थी, क्योंकि अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली में प्रतिस्पर्धा काफी कठिन थी। उनके इस सफलता ने उनके परिवार और शिक्षकों को उनसे भविष्य में बड़ी उम्मीदें बाँध दीं।
प्रेसीडेंसी कॉलेज से इंटरमीडिएट (1919)
1919 में, उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता से आर्ट्स में इंटरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। प्रेसीडेंसी कॉलेज उस समय भारत के सर्वश्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थानों में गिना जाता था, और वहाँ से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होना अपने आप में एक गौरवपूर्ण उपलब्धि थी। इस समय तक, उनकी बुद्धिमत्ता और अध्ययनशीलता ने उन्हें एक मेधावी छात्र के रूप में स्थापित कर दिया था।
अंग्रेजी ऑनर्स में प्रथम श्रेणी में स्नातक (1921)
1921 में, Dr Shyama Prasad Mukherjee ने प्रेसीडेंसी कॉलेज से ही अंग्रेजी ऑनर्स में स्नातक (बी.ए.) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त करके उत्तीर्ण की। अंग्रेजी साहित्य में उनकी गहरी रुचि और समझ ने उन्हें इस विषय में विशेषज्ञ बना दिया। उनके शिक्षकों और सहपाठियों ने उनकी विद्वता और तार्किक क्षमता की बार-बार प्रशंसा की।
बंगाली साहित्य में एम.ए. (1923): पिता के आदर्शों की छाप
हालाँकि श्यामाप्रसाद अंग्रेजी साहित्य में विशेषज्ञ थे, लेकिन उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी (कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति) ने उन्हें भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए बंगाली साहित्य में एम.ए. करने के लिए प्रेरित किया। सर आशुतोष स्वयं भारतीय भाषाओं को विश्वविद्यालय स्तर पर प्रतिष्ठित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। उनका मानना था कि भारतीय छात्रों को अपनी मातृभाषा में भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलना चाहिए।
इस प्रकार, Dr Shyama Prasad Mukherjee ने 1923 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बंगाली साहित्य में एम.ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। यह निर्णय न केवल उनके पिता के प्रति समर्पण को दर्शाता था, बल्कि यह भी सिद्ध करता था कि वे केवल अंग्रेजी ही नहीं, बल्कि भारतीय भाषाओं में भी उतने ही निपुण थे।
एक विलक्षण छात्र का उदय
Dr Shyama Prasad Mukherjee की शैक्षणिक यात्रा न केवल उनकी असाधारण प्रतिभा, बल्कि उनके राष्ट्रीय चेतना और पारिवारिक मूल्यों को भी प्रदर्शित करती है। उन्होंने न केवल अंग्रेजी, बल्कि भारतीय भाषाओं को भी समान महत्व दिया, जो आज के समय में भी प्रासंगिक है। उनकी यह शिक्षा-यात्रा आगे चलकर एक महान शिक्षाविद्, राजनेता और राष्ट्रनिर्माता के रूप में उनके उदय की नींव बनी।
विवाह और पारिवारिक त्रासदियाँ
इतने बड़े और संम्पन्न परिवार में जन्म लेने के बाद भी उनका जीवन चुनौतियों से भरा रहा सन 1922 में डॉ. बेनीमाधव चक्रवर्ती की पुत्री सुधा देवी से उनका विवाह हुआ लेकिन कुछ ही समय बाद सन 1924 में पिता सर आशुतोष मुखर्जी का अचानक निधन, जिसने श्यामाप्रसाद को गहराई तक झकझोर दिया।वो अपने पिता से बहुत लगाव रखते थे ! उन्जहों ने जब किसी तरह जीवन को सम्हला तभी 1933: पत्नी सुधा देवी का निधन, जिसके बाद उनकी बहन तारा देवी ने उनके चार बच्चों का पालन-पोषण किया।
शिक्षा जगत में योगदान
- 1934-1938: Dr Shyama Prasad Mukherjee कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने।
- कृषि शिक्षा, महिला शिक्षा और शिक्षक प्रशिक्षण को बढ़ावा दिया।
- आशुतोष म्यूज़ियम ऑफ इंडियन आर्ट की स्थापना की।
- विश्वविद्यालय में हिंदी और उर्दू को द्वितीय भाषा के रूप में शामिल किया।
- 1937: पहली बार रवींद्रनाथ टैगोर को बंगाली में समावेशन भाषण देने के लिए आमंत्रित किया।
Dr Shyama Prasad Mukherjee का राजनीतिक सफर
- 1929: बंगाल विधान परिषद में कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में प्रवेश।
- 1941: फ़ज़लुल हक़ के साथ मिलकर प्रोग्रेसिव कोएलिशन मंत्रिमंडल बनाया और वित्त मंत्री बने।
- 1942: अगस्त क्रांति के दमन के विरोध में मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया।
- 1943: बंगाल के भीषण अकाल में राहत कार्यों का नेतृत्व किया।
- 1947: भारत विभाजन के बाद पश्चिम बंगाल के निर्माण में अहम भूमिका निभाई।
- 1950: पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में हिंदुओं के नरसंहार के विरोध में नेहरू-लियाकत समझौते के खिलाफ केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया।
भारतीय जनसंघ की स्थापना
- 1951: भारतीय जनसंघ (बाद में भाजपा) की स्थापना की।
- 1952: पहले लोकसभा चुनाव में विजयी हुए और संसद में विपक्ष के नेता बने।
कश्मीर आंदोलन और रहस्यमय मृत्यु
- 1953: जम्मू-कश्मीर के पूर्ण भारतीय संघ में विलय की मांग को लेकर आंदोलन किया।
- 23 जून, 1953: श्रीनगर में नजरबंदी के दौरान रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। उनका नारा था – “एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे!”
Dr Shyama Prasad Mukherjee का जीवन देशभक्ति, साहस और सिद्धांतों की मिसाल है। उनकी मृत्यु ने भारतीय राजनीति में एक बड़ा शून्य छोड़ दिया, लेकिन उनके विचार आज भी देश को प्रेरित करते हैं।
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